लोकतांत्रिक देश में संविधान ही नागरिकों के जीवन का आधार- कृष्णा कुमार

भारत में संविधान को अस्तित्व में आए हुए लगभग 73 वर्ष से अधिक हो चुके हैं। फिर भी संविधान अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर सका। न्याय कराह रही है


स्वतंत्रता पराधीन बनकर बैठी है, समता ऊँच-नीच में फंसी है, बंधुत्व आपसी भेद-भाव से दम तोड़ रही है, धर्मनिरपेक्षता कट्टरपंथियों के घेरे में है। जबकि संविधान निर्माण नागरिकों के गुणवत्तापूर्ण जन-जीवन के लिए हुआ था। आज भी देश की अधिकांश आबादी संविधान की बुनयादी संरचना से अनभिज्ञ है। जनता कल्याण के लिए बनाए गए कानून उसी पर बोझ बनते जा रहा है। व्यवस्था जनता पर हावी है। सुरक्षा, विकास और न्याय के पालक ही संविधान अवमाननाओं में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। जनमानस को राजनैतिक उत्तरदायित्व संभालने के प्रथम प्रजातंत्री कर्तव्य मतदान का महत्व और दूरगामी परिणाम जब तक स्पष्ट रूप से विदित नहीं होगा, तब तक स्तिथि के सुधरने की आशा नहीं की जा सकती। नागरिकों को अपने मौलिक अधिकार के साथ ही साथ मौलिक कर्तव्यों का भी बोध होना उतना ही आवश्यक है। यह देश अनगिनत बलिदानों के बाद अपने वास्तविक स्वरूप में आ सका इसलिए देश की एकता, अखंडता और अस्मिता बरकरार रखने के लिए हमें अपने संविधान को पूरी ईमानदारी के साथ खुले मन से अपनाना होगा।

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